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षड्भा॒राँ एको॒ अच॑रन्बिभर्त्यृ॒तं वर्षि॑ष्ठ॒मुप॒ गाव॒ आगुः॑। ति॒स्रो म॒हीरुप॑रास्तस्थु॒रत्या॒ गुहा॒ द्वे निहि॑ते॒ दर्श्येका॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṣaḍ bhārām̐ eko acaran bibharty ṛtaṁ varṣiṣṭham upa gāva āguḥ | tisro mahīr uparās tasthur atyā guhā dve nihite darśy ekā ||

पद पाठ

षट्। भा॒रान्। एकः॑। अच॑रन्। बि॒भ॒र्ति॒। ऋ॒तम्। वर्षि॑ष्ठम्। उप॑। गावः॑। आ। अ॒गुः॒। ति॒स्रः। म॒हीः। उप॑राः। त॒स्थुः॒। अत्याः॑। गुहा॑। द्वे इति॑। निहि॑ते॒ इति॒ निऽहि॑ते। दर्शि॑। एका॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:56» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने इस संसार में (द्वे) दो कार्य और कारण (निहिते) धारण किये उन दोनों के मध्य में (एका) एक कार्य नामक (दर्शि) देख पड़ता है (अत्याः) सर्वत्र व्यापक होनेवाले आकाशादि वा (गुहा) महत्तत्त्वनामक सम्पूर्ण बुद्धि में (उपराः) मेघ (तस्थुः) स्थित होते और मेघ (तिस्रः) स्थूलमध्य और सूक्ष्म (महीः) भूमियों को और (गावः) किरणें (उप, आ, अगुः) प्राप्त होते हैं उन (षट्) छः (भारान्) पञ्चतत्त्व और महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि को (अचरन्) न कम्पाता हुआ (एकः) सहायरहित ईश्वर (वर्षिष्ठम्) अतीव बढ़े हुए (ऋतम्) सत्य कारण का (बिभर्त्ति) धारण वा पोषण करता है, उसीका निरन्तर ध्यान करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर से प्रकृति आदि भूमि पर्य्यन्त संसार रच धारण कर और उत्तम प्रकार पालन करके व्यवस्थापित अर्थात् ढंग पर चलाया जाता है, वही पूज्य है, ऐसा मानो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या येन जगदीश्वरेणात्र संसारे द्वे निहिते तयोरेका दर्श्यत्या गुहा उपराश्च तस्थुरुपराश्च तिस्रो महीर्गाव उपागुस्तान् षड् भारानचरन्त्सन्नेक असहाय ईश्वर वर्षिष्ठमृतं च बिभर्त्ति तमेव सततं ध्यायत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (षट्) (भारान्) पञ्चतत्त्वानि महत्तत्त्वञ्च (एकः) (अचरन्) स्थिरः (बिभर्त्ति) धरति पुष्यति वा (ऋतम्) सत्यं कारणम् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (उप) (गावः) किरणाः (आ) (अगुः) आगच्छन्ति (तिस्रः) स्थूला मध्या सूक्ष्मा च (महीः) भूमीः (उपराः) मेघाः (तस्थुः) तिष्ठन्ति (अत्याः) अतन्ति सर्वत्र व्याप्नुवन्ति त आकाशादयः (गुहा) गुहायां महत्तत्त्वाख्यायां समष्टिबुद्धौ (द्वे) कार्य्यकारणे (निहिते) संधृते (दर्शि) दृश्यते (एका) कार्याख्या ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या येन परमेश्वरेण प्रकृत्यादिभूम्यन्तं जगन्निर्माय धृत्वा संपाल्य व्यवस्थाप्यते स एव पूज्योऽस्तीति मन्यध्वम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराने प्रकृती इत्यादीपासून भूमीपर्यंत जग निर्माण केलेले आहे, धारण केलेले आहे, उत्तम प्रकारे पालन करून व्यवस्थित केलेले आहे. तोच पूज्य आहे. ॥ २ ॥